
डॉ. संजय जी मालपाणी
राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष, गीता परिवार
अव्यक्त से व्यक्त होने की प्रक्रिया एक गूढ़ आध्यात्मिक विषय है, जो ध्यान, भक्ति और आत्मसंयम के माध्यम से स्पष्ट होती है। शास्त्रों के अनुसार, जो जीव अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं, वे परम् सत्य की निराकार कल्पना को अपनाकर अव्यक्त की सम्पूर्णता सहित उसकी अर्चना करते हैं। यह अव्यक्त तत्व, जो इन्द्रियों की अनुभूति से परे, सर्वव्यापी, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, अचल तथा ध्रुव है, उसकी भक्ति ही जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए।
परमेश्वर के सगुण उपासक हों या निर्गुण, दोनों ही ईश्वर की उपासना करते हैं, किंतु कुछ लोग यह मानते हैं कि जब ईश्वर निराकार, परम सत्ता और सर्वव्यापी हैं, तो उनकी नित्य उपासना की आवश्यकता क्या है? परंतु यह विचार सर्वथा अनुचित है, क्योंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, और सर्वज्ञ हैं तथा उनका नित्य चिन्तन ही भक्तों के लिए अनिवार्य है। सच्चे मन से भक्ति करने वाले भक्त परमात्मा को अति प्रिय होते हैं।
भक्त प्रह्लाद का उदाहरण
भक्त प्रह्लाद की कथा इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि भक्त और भगवान् के बीच का सम्बन्ध कितना प्रगाढ़ होता है। हिरण्यकश्यप, जो स्वयं को ईश्वर मान बैठा था, अपने पुत्र प्रह्लाद की भक्ति को सहन नहीं कर पाया और उस पर अनेक अत्याचार किए। किंतु भक्तवत्सल श्रीहरि ने भक्त के आह्वान पर नृसिंह अवतार लेकर अपने प्रिय भक्त की रक्षा की और अहंकारी हिरण्यकश्यप का अंत कर दिया। यह कथा यह सिद्ध करती है कि जब कोई भक्त अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है और अव्यक्त परमात्मा की उपासना करता है, तो स्वयं ईश्वर उसकी रक्षा हेतु प्रकट हो जाते हैं।
समभाव एवं ईश्वरीय दृष्टि
सत्यभक्त वह है जो अपनी समस्त इन्द्रियों को संयमित कर, समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है और सम्पूर्ण चर-अचर संसार में भगवत् तत्व के दर्शन करता है। यदि कोई व्यक्ति प्रत्येक प्राणी में ईश्वर के दर्शन करने लगे, तो वह किसी से द्वेष, क्रोध या घृणा नहीं कर सकता। जो व्यक्ति बाह्य जगत् में ईश्वर की उपस्थिति स्पष्ट रूप से देखता है, वही वास्तव में सच्चे भक्त के रूप में स्वीकार्य होता है।
इसके विपरीत, जो व्यक्ति केवल यह दावा करता है कि वह समस्त जीवों में ईश्वर को देखता है, लेकिन व्यवहार में दूसरों से द्वेष रखता है, वह मात्र आडम्बर करता है। सच्ची भक्ति वह है जो समस्त प्राणियों के प्रति समानता, प्रेम और दयाभाव को प्रकट करे।
अव्यक्त से व्यक्त होने की प्रक्रिया केवल ज्ञान या तर्क से नहीं, बल्कि आत्मानुभूति और भक्ति से संभव है। जो व्यक्ति अपने हृदय में ईश्वर को बसाकर, सभी जीवों में समदृष्टि रखता है, वही वास्तव में ईश्वर का सच्चा भक्त है। अतः, नित्य ध्यान, आत्मसंयम और निष्कपट भक्ति द्वारा हम इस परम सत्य को अनुभव कर सकते हैं।