
प. पू. स्वामी श्रीगोविन्ददेव गिरिजी महाराज
(अध्यक्ष, गीता परिवार व कोषाध्यक्ष, श्रीरामजन्मभूमि न्यास)
मनुष्य इस सृष्टि में निवास करता है, और यह निवास उसके लिए सुखदायक, हितकारी तथा दीर्घकालीन होना चाहिए। “मैं हूँ” इसे व्यष्टि कहते हैं, लेकिन “मैं समाज का अंश हूँ” इसे समष्टि कहते हैं। मनुष्य केवल एक व्यक्ति नहीं है, बल्कि समाज का अभिन्न अंग है। इसलिए, उसे केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को भी समझते हुए कार्य करना चाहिए। जिस समाज में हमने जन्म लिया, जहाँ हमारा विकास हुआ, उस समाज के प्रति हमारा दायित्व है कि हम उसका भी भला सोचें। इसी प्रकार, प्रकृति – यह सृष्टि, जल, पशु, वनस्पति, आकाश आदि – हमारे साथ गहराई से जुड़े हुए हैं। अतः हमें अपने आचरण में प्रकृति और पर्यावरण का भी विचार करना चाहिए। यह सम्पूर्ण सृष्टि एक दिव्य शक्ति से निर्मित हुई है। इसे हम किसी भी नाम से पुकार सकते हैं या बिना नाम के भी स्वीकार कर सकते हैं – ‘call it by any name or by no name’। भारतीय संस्कृति में इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है – जैसे ब्रह्म, परमात्मा, भगवान। यह सृष्टि चैतन्य से अस्तित्व में आई है, और हमारे जीवन का उद्देश्य इस चेतना से जुड़ाव रखना है। भगवान के किसी एक रूप को सीमित करने का आग्रह करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि यह शक्ति अनंत और सार्वभौमिक है। यह वही शक्ति है, जिससे हम उत्पन्न हुए हैं और जिसमें अंततः विलीन हो जाते हैं। अंग्रेजी में “गॉड” (GOD) को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है:
- G: Generation (सृष्टि का निर्माण)
- O: Operation (सृष्टि का संचालन)
- D: Destruction (सृष्टि का विलय)
यह शक्ति सृष्टि का निर्माण, संचालन और संहार करती है। इसे नाम दें या न दें, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है, “आप पानी को वाटर कहें, जल कहें या तोय कहें, उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता।” सत्य एक ही है, लेकिन विद्वान इसे अपने-अपने दृष्टिकोण से व्यक्त करते हैं – “एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति”।
वेदों में भी इस दिव्य शक्ति के बारे में कहा गया है:
“यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद्ब्रह्मेति।”
अर्थात, “जिससे सभी प्राणियों का जन्म होता है, जिसके द्वारा वे जीवित रहते हैं, और जिसमें अंततः विलीन हो जाते हैं, वही ब्रह्म है।”
धर्म कोई मत, संप्रदाय या रूढ़िवादी विचार नहीं है। यह पूर्णतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है। धर्म का उद्देश्य है संतुलन बनाए रखना – मनुष्य, समाज और प्रकृति के बीच। यदि धर्म को विद्या, शिक्षा और ज्ञान के साथ जोड़ा जाए, तो न केवल हमारा व्यक्तिगत जीवन सफल होगा, बल्कि समाज और पर्यावरण भी सुखी और समृद्ध होंगे। अत: कहा गया – “विद्या धर्मेण शोभते।”
भगवद्गीता में इस संतुलन को बनाए रखने का विशेष आग्रह किया गया है। यह संतुलन मनुष्य, समाज और प्रकृति के बीच आवश्यक है। जब हम अपने जीवन में इसे अपनाते हैं, तो दीर्घकालीन सुख और व्यवस्था संभव होती है।
इन विचारों के आधार पर, संस्कार, शिक्षा और प्रेरणा को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाना चाहिए। यह न केवल हमें, बल्कि हमारे समाज और आने वाली पीढ़ियों को भी सुदृढ़ और संतुलित जीवन जीने की दिशा में प्रेरित करेगा।